साहित्य व समाज की पारस्परिकता

Authors

  • डॉ. बबीता काजल Author

DOI:

https://doi.org/10.7492/ap20kp17

Abstract

साहित्य अनेक कलाओं की भाँति मानव जीवन व मानव समाज का अभिन्न अंग है। साहित्य में हित का भाव निहित रहता है जो उसे कल्याणप्रद का अर्थ देता है। मानव समाज की आकांक्षाओं, अपेक्षाओं, स्वप्नों तथा संकल्पना की मार्मिक शाब्दिक अभिव्यक्ति का नाम साहित्य है, साहित्य जीवन से जुड़ा है और जीवन समाज से जुड़ा है। इस प्रकार साहित्य समाज की पारस्परिकता निस्संदेह है, सुदृढ़ है। लेखक समाज के बीचों बीच रहकर समय को उसकी समस्त समकालीनता में पकड़कर रचना करता है। साहित्य के सरोकार जितने सूक्ष्म व गहरे हैं उतने ही व्यापक ओर विस्तृत हैं, समाज व संस्कृति का कोई भी गोपनीय कोना उससे अछूता नहीं रहता। साहित्य व समाज को जोड़ने वाला प्रत्येक कारक सामाजिक सरोकार का आधार है और इस आधार पर टिका साहित्य व समाज का हर वह सम्बन्ध साहित्य का सामाजिक सरोकार है, जो समाज की लघुतम इकाई व्यक्ति को वृहद् अकाई से जोड़कर सामाजिक व्यवस्था को विकासात्मक और व्यापक बनाता है- ”साहित्य में समाज का एक दूसरे क प्रति गहरा लगाव और विष्वास सबसे बड़ा सामाजिक सरोकार है सभी सरोकार उसकी छाया तले पलते हैं।”

Published

2012-2024

Issue

Section

Articles

How to Cite

साहित्य व समाज की पारस्परिकता. (2024). Ajasra ISSN 2278-3741, 11(3), 150-154. https://doi.org/10.7492/ap20kp17

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