‘‘नकार से स्वीकार तक बढ़ता दलित साहित्य’’

Authors

  • डाॅ. अजीत कुमार राय Author

DOI:

https://doi.org/10.7492/v01mkh49

Abstract

समकालीन हिंदी दलितदृविमर्श हिंदी में 20वीं सदी की अंतिम दहाई में जब हिंदी एवं दलित साहित्य की साथ-साथ चिंतन एवं चर्चा शुरू हुई तो मराठी के प्रख्यात चिंतक श्चिटणिसश् ने कहा कि ष्प्रस्थापितों के विरुद्ध विद्रोह करने वाला साहित्य एवं हिंदू संस्कृति और पौराणिकता से अलग साहित्य ही दलित साहित्य है ऐसा मैं मानता हूँ और इसीलिए दलितों द्वारा,दलितों के लिए लिखा गया साहित्य ही दलित साहित्य है और मध्ययुगीन साहित्य से छुटकारा पाना ही दलित साहित्य का उद्देश्य है।ष् इसके अलावा काशीनाथ सिंह, नामवर सिंह आदि लेखकों ने इन बातों का समर्थन किया कि ष्दलितों पर  लिखने के लिए दलित होना आवश्यक नहींष् इसके जवाब में ओमप्रकाश वाल्मीकि ने कहा कि ष्दलित के नाम पर वाल्मीकि और व्यास ने ब्राह्मणवाद की बात की है कोई दलित होकर ब्राह्मणवाद की बात करता है तो वह दलित साहित्य का रचयिता कैसे हो सकता है।ष् बहरहाल इस लंबी कशमकश के बाद हिंदी में दलित साहित्य सदियों से पीड़ित मानवता की पुकार है इसके केंद्र में मनुष्य है इसलिए इसके मूल स्वरूप में सामाजिक सरोकारों से जुड़ाव वर्ण तथा जाति व्यवस्था का नकार है। दलित साहित्य की अनुभूति परंपरागत साहित्य से बिल्कुल अलग है यह पीड़ित और असहाय मनुष्य की वेदना से जुड़कर विषमताओं धार्मिक सामाजिक विसंगतियों शोषण के उपादानों तथा मनुष्यदृमनुष्य के बीच खाई पैदा करने वाले तत्वों का पुरजोर विरोध करता है। मनुष्य की मुक्ति की चिंता करता है। वस्तुतः दलितदृसाहित्य, दलित की यथार्थ स्थिति उसकी सीमाओं तथा संभावनाओं को सामाजिक परिप्रेक्ष्य में चित्रित करता है।

Published

2012-2024

Issue

Section

Articles

How to Cite

‘‘नकार से स्वीकार तक बढ़ता दलित साहित्य’’. (2024). Ajasraa ISSN 2278-3741, 13(10), 142-147. https://doi.org/10.7492/v01mkh49

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